भिन्न-भिन्न आधारों पर अनुवाद में भिन्न-भिन्न भेद किए जा सकते हैं लेकिन
मूलतः अनुवाद के दो प्रकार होते हैं - साहित्यिक अनुवाद व साहित्येतर अनुवाद। इन
दोनो प्रकार के अनुवादों में कुछ भूलभूत अंतर हैं - यदि भाव और शब्दपरक अनुवाद के
अनुपात को देखा जाए तो साहित्य में भावपरक अनुवाद की मात्रा बहुत अधिक व शब्दपरक
अनुवाद की मात्रा बहुत कम या शून्य होती है, साहित्येतर अनुवाद में ठीक इसका
विपरीत होता है। साहित्यिक अनुवाद में मूल शब्दों की हानि होने की संभावना प्रबल
होती है जबकि साहित्येतर विषयों में आमतौर पर ऐसा नहीं होता है।
दोनो ही तरह के अनुवाद भिन्न-भिन्न स्तरों पर अनुवादकों के लिए भिन्न-भिन्न
प्रकार की चुनौतियां और समस्याएं उत्पन्न करते हैं। इनमें से कुछ समस्याओं का
विश्लेषण हम आगे करेंगे। सबसे पहले साहित्य अनुवाद की समस्याएं।
साहित्य अनुवाद व उससे जुड़ी समस्याएं -
स्रोत भाषा में लिखित साहित्य को लक्ष्य भाषा में अनुवाद करने को साहित्यिक
अनुवाद कहते हैं। साहित्य की विधाओं में कविता, लघुकथा, कहानी, उपन्यास, अकांकी,
नाटक, प्रहसन(हास्य), निबंध, आलोचना, रिपोर्ताज, डायरी लेखन, जीवनी, आत्मकथा,
संस्मरण, गल्प (फिक्शन), विज्ञान कथा (साइंस फिक्शन), व्यंग्य, रेखाचित्र, पुस्तक
समीक्षा या पर्यालोचन, साक्षात्कार शामिल हैं। साहित्यिक
कृतियों का अनुवाद, सामान्य अनुवाद से
उच्चतर माना जाता है। साहित्यिक अनुवादक कार्य के सभी रूपों जैसे भावनाओं, सांस्कृतिक बारीकियों, स्वभाव और
अन्य सूक्ष्म तत्वों का अनुवाद करने में भी सक्षम होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि
साहित्यिक अनुवाद वास्तव में संभव नहीं हैं।
दो संस्कृतियों के बीच अनुवाद रूपी पुल के निर्माण में
साहित्यिक अनुवाद की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। इसका सीधा सा कारण यह
है कि किसी भौगोलिक क्षेत्र का साहित्य उस क्षेत्र की संस्कृति, कला और रीतियों का
प्रतिनिधित्व करता है। कहा भी गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। बस यही वह
चीज है जो साहित्य अनुवाद को बेहद उत्तरदायी और कठिन कर्म बना देती है। किसी भी एक
साहित्यिक कृति का उसकी मूल भाषा से लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय कितनी ही
सावधानियां बरतनी पड़ती हैं। ये सभी सावधानियां सांस्कृतिक भिन्नताओं के चलते
समस्याओं का रूप ले लेती हैं। क्योंकि सांस्कृतिक भिन्नता को समाप्त करने के लिए
भाषा को मूल रचना की भाषा में व्यक्त प्रतीकों, भावों और उन अनेक विशेषताओं को
सटीक तरीके से लक्ष्य भाषा में उतारना होता है और साथ ही यह ध्यान रखना होता है कि
लक्ष्य भाषा में उतरी कृति पढ़ने वाले को सहज और आत्मीय लगे।
हम सभी समझ सकते हैं कि यह आसान नहीं है, कारण बहुत सारे
हैं, आइये उनकी विवेचना करते है:
काव्यानुवाद की समस्याएं -
काव्यानुवाद एक प्रकार का भावानुवाद है जिसे अधिकांशतः
कवि ही करते हैं, क्योंकि इसके लिए कवि की संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है। इसी
कारण से तटस्थता बनाए रखना एक बड़ी समस्या हो जाती है। काव्य में शब्द के स्थान पर
प्रतीकों का उपयोग बहुतायत में होता है। इस संकृति के प्रतीक को दूसरी संस्कृति के
प्रतीक के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है कारण सांस्कृतिक भिन्नता है।
उदाहरण के लिए गंगा नदी पर लिखी किसी कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद करते समय हमको इंग्लैंड की संस्कृति में गंगा जैसी पवित्र और मान्य नदी का प्रतीक खोजना होगा। अन्यथा गंगा के प्रतीक को अगर वैसे ही उपयोग किया गया तो लक्ष्य पाठक को भारत में गंगा की महत्ता को अलग से समझाना होगा।
इसी प्रकार से यह कतई आवश्यक नहीं है हिन्दी में “चरण कमल बंदौ हरिराई” में जिस तरह से चरण
को कमल की कोमलता का प्रतीक माना गया है वैसा किसी अन्य यूरोपीय या भारतीय भाषाओं
में भी हो।
इस सब के अलावा छंदबद्धता, बिम्ब विधान, कल्पना, मधुरता,
लय, संरचना, अलंकारादि भी काव्यानुवाद को जटिल कर समस्याएं पैदा करते हैं। अनुवाद
करते समय मूल पाठ के इन गुणों को लक्ष्य पाठ में उतारना भी समस्याओं का जनक होता
है।
नाट्यानुवाद की समस्याएं -
मंचनीयता की पूर्व-शर्त से जुड़ी यह विधा कभी-कभी
काव्यानुवाद जितनी ही जटिल हो जाती है क्योंकि नाट्य विधा का मंचन पक्ष इसे
बहुआयामी बना देता है। नाटक का लक्ष्य पूरा हो इसके लिए लेखन से बाहर के कई वाह्य
तत्व जैसे अभिनेता और निर्देशक भी इसमें शामिल होते हैं। मंचनीयता को पूरा करने के
लिए नाटककार को रंगमंच की आवश्यकताओं को दिमाग में रखना पड़ता है। यह इसकी रचना
प्रक्रिया को जटिल बना देता है।
नाटक का अनुवाद करने में उसकी सावादात्मक प्रकृति को बनए
रखना एक समस्या है क्योंकि उसके पात्रों के समस्त गुणों को लक्ष्य भाषा के पात्रों
में ठीक उसी तरह से दिखना चाहिए। समस्या यह है कि वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करने
वाले पात्र संस्कृति की भिन्नता के प्रतीक होते हैं और उनको मूल रचना से लक्ष्य
रचना में पुर्नजन्म लेना होता है। यह अनुवादक के लिए समस्याजनक हो जाता है क्योंकि
उदाहरण के लिए भारतीय परिवेश में राजा हरिश्चन्द्र के डोम वाले चरित्र को दर्शाने
के लिए अंग्रेज़ी में उसी प्रकार का कोई कार्य प्रतीक खोजना होगा।
नौकर व स्वामी के बीच के संवाद में यूरोपीय भाषाओं में
नौकर द्वारा स्वामी के नाम/उपनाम के साथ ‘मिस्टर’ पूर्वसर्ग लगाकर
संवादों को प्रस्तुत किया जा सकता है लेकिन हिन्दी में ऐसा संभव नहीं है। बल्कि
हिन्दी में ऐसा करना नाटक के प्रवाह को बाधित करेगा व पढ़ने वालों को यह अजीब सी
अनूभूति देगा।
मुहावरों तथा लोकोक्तियों का भी नाटकों में भरपूर उपयोग
होता है और अनुवाद की समस्याओं पर चर्चा करते समय हम देख चुके हैं कि इनको लक्ष्य
भाषा में पुनःनिर्मित करना चेढ़ी खीर साबित होता है। नाटक में संवादों के माध्यम
से अभिनेता भावों को प्रकट करता है, अर्थात इसमें (संवादों में) शब्दों का चयन यह
सोच कर किया जाता है कि अभिनेता संवाद प्रस्तुत करते समय किस शब्द को कैसे
बोलेगा(गी) और उच्चारण की ध्वनि के भाव क्या होंगे। अब मूल भाषा के संवादों के इस
भाव या विशेषता को अनुवादक द्वारा लक्ष्य भाषा में उतार पाना एक विकट समस्या होती
है।
कथानुवाद की समस्याएं -
कविता तथा नाटक की ही तरह कहानी, उपन्यास अथवा कथा
साहित्य में सर्जना का स्तर किसी भी तरह से हल्का या कम नहीं होता है, इसीलिए इसका
अनुवाद किसी भी तरह से सहज या सरल क्रिया नहीं होती है। कथा का अपना एक विशिष्ट
प्रारूप होता है। इसमें साहित्य की अन्य विधाओं के गुण भी अंतर्निहित होते हैं।
जिस तरह से नाटक के पात्र अपनी संस्कृति व पृष्ठभूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
कथा साहित्य में पूरे पाठ को एकल इकाई के रूप में
प्रस्तुत व गर्हण करने से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है। अर्थात संपूर्ण पाठ एक
श्रंखला जैसा होता है जो आपस में गुथी होती है और प्रत्येक कड़ी अगली या पिछली
कड़ी को अर्थ प्रदान करती है। इस तालमेल को अनुवाद मे कायम रख पाना एक समस्या हो
सकती है।
साहित्य की अन्य विधाओं के अनुवाद की तरह ही इस विधा में
भी अनुवादक को कथ्य के विभाजन तथा शिल्पगत प्रयोग पर चिंतन मनन करना पड़ता है।
अनुवादक कभी कुछ जोड़ता(ती) है तो कभी कुछ हटाता(ती) है। इस सारे कार्य और गतिविधि
के साथ उसे मूल पाठ के भाव को बनाए रखना पड़ता है। स्रोत व लक्ष्य भाषा में सही
प्रतीकों का चयन यहां भी उतना ही कठिन और समस्याप्रद होता है। किसी हिन्दी कहानी
में हिन्दू विवाह के ‘सात फेरों’ के साथ लिए जाने वाले
सात वचनों को प्रतीक रूप में दूसरी भाषा में उतारना जहां पर इस तरह की संकल्पना भी
समस्याजनक हो तो समझा जा सकता है कि प्रतीक खोजना कितनी दुष्कर समस्या हो सकती है।
‘चरण स्पर्श’ का समतुल्य यूरोपीय
भाषा में खोजना एक समस्या है।
अलंकार, मुहावरे और लोकोक्तियां यहां भी अनुवादक को उतनी
ही समस्या देते हैं जितनी कि नाटक या अन्य विधाओं में। ‘वह गऊ समान है’ जैसे मुहावरे के लिए
दूसरे देशों में गाय के जैसे सीधे व सम्मानित पालतू प्रतीक को खोजना एक दुष्कर
कार्य है। एक बात और, प्राचीन साहित्य का प्रतीक आज के समय में समतुल्य खोजना भी
एक समस्या बन सकती है।
सभी साहित्यिक विधाओं के अनुवाद में अनुवादकों को कमोबेश
समान समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अनुवाद के दौरान दो भाषाओं का आपसी संचार,
अनुवादक की संवेदना तथा स्रोत साहित्य की मूल संस्कृति की समझ, प्रतीकों, मुहावरों
व लोकोक्तियों का भरपूर ज्ञान आदि ऐसे गुण हैं जो साहित्यिक अनुवादक के लिए
अपरिहार्य हैं। साहित्यिक अनुवाद के लिए प्रतिभा, क्षमता और अभ्यास तीनों का
अत्यधिक महत्व है।
साहित्येतर अनुवाद व उससे जुड़ी समस्याएं -
साहित्य में शामिल समस्त विधाओं के अतिरिक्त शेष विषयों को साहित्येतर विषय
कहा जाता है इनमें मानविकी विषय, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान, प्रौद्योगिकी,
इंजीनियरिंग, कार्यालयीन, वाणिज्यिक, वित्त, कानून आदि विषय शामिल हैं। साहित्यिक
और साहित्येतर अनुवादों में मूल अंतर यह है कि साहित्येतर अनुवाद करते समय मूल व
स्रोत भाषा के साथ-साथ संबद्ध विषय का भी पर्याप्त ज्ञान आवश्यक होता है। तकनीकि
अनुवाद में मूल भाषा में निहित बहुअर्थी तथा संदिग्ध स्थितियों को समाप्त करके
लक्ष्य को परिमार्जित करने का प्रयास शामिल रहता है। इन सभी विषयों में अनुवाद की
मूल समस्याएं तो वे ही होंगी जो कि किसी साहित्यिक विषय में आती हैं जैसे कि भाषाओं
की मूल संस्कृतियों, प्रतीकों, लोकोक्तियों, मुहावरों व विशिष्ट भावों का सटीक
प्रस्तुतिकरण। इनमें से प्रत्येक विषय की अपनी विशिष्टताओँ के कारण हर एक विषय के
अनुवाद में शामिल समस्याएं विषय विशेष से संबंधित भी हो सकती है लेकिन मोटे तौर पर
समस्याएं समान ही रहती है।
मानविकी विषयों के अनुवाद की समस्याएं:
मानविकी वे शैक्षणिक विषय हैं जिनमें प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के मुख्यतः अनुभवजन्य दृष्टिकोणों
के विपरीत, मुख्य रूप से विश्लेषणात्मक, आलोचनात्मक या काल्पनिक
विधियों का इस्तेमाल कर मानवीय स्थिति का अध्ययन किया जाता है। इन विषयों के
अनुवाद में भाषाओं (लक्ष्य व स्रोत) की महारत के अतिरिक्त निम्नलिखित समस्याएं
हमेशा सामने आती रहती हैं:
Ø लक्ष्य भाषा में अनुदित
सामग्री का उपयोग क्या होगा? यह जानना इसलिए जरूरी है
क्योंकि यह संदर्भित विषय के उस स्तर को निर्धारित करता है जिसका आधार मूल रूप से
लक्ष्य पाठक की मानसिक अवस्था तथा विषय विशेष के ज्ञान का स्तर है जिसके लिए
अनुवाद किया जा रहा है।
Ø लक्ष्य
भाषा का अपना स्तर क्या होगा? मान लीजिए कि किसी प्रशिक्षण
सामग्री का अनुवाद किया जा है जो कि शिक्षक प्रशिक्षण से जुड़ी है। ऐसी स्थिति में
विषय विशेष के ज्ञान के स्तर के साथ अनुवाद में उपयोग की जाने वाली भाषा का स्तर
भी मायने रखता है क्योंकि - शिक्षक प्रशिक्षण शिशुशाला के शिक्षकों से लेकर
विश्वविद्यालय के शिक्षकों तक, और तो और तकनीकि विषयों के शिक्षकों के भाषा ज्ञान
का स्तर भिन्न-भिन्न होगा।
Ø मानविकी
विषयों में यह जरूरी हो जाता है कि यदि मूल भाषा में किसी तरह के भ्रम की संभावना
हो तो लक्ष्य भाषा में उसे समाप्त किया जाए। इस कारण से मानविकी विषयों में अनुवाद
करना समस्याप्रद हो जाता है। क्योंकि मूल भाषा में उपयोग किए गए कई शब्द या
वाक्यांश यदि लक्ष्य भाषा में ठीक उसी प्रकार रख दिए जाएं तो पाठक के लिए भ्रम
पैदा हो सकता है इसलिए उस भ्रम की स्थिति का न होना अच्छे मानविकी अनुवाद की
विशेषता है।
Ø मानविकी
अनुवाद में एक और समस्या शब्दावली से जुड़ी हुई है क्योंकि हर एक विषय की अपनी एक
मानक शब्दावली होती है। यदि अनुवादक मानक और प्रचिलित शब्दावली के सही उपयोग से
परिचित नहीं होगा(गी) तो उसका अनुवाद, पाठक की समझ से परे होगा।
Ø मानविकी
विषयों का ज्ञान अत्यधिक महत्वपूर्ण है और कई विषय जैसे दर्शन शास्त्र में
प्रतीकों आदि की उपस्थिति हो सकती है ऐसे में मानविकी विषय भी साहित्य के विषयों
जैसा व्यवहार कर सकते हैं। इन परिस्थितियों में ऐसे मानविकी विषय से संबंधित
अनुवाद में वे सारी समस्याए उत्पन्न हो सकती हैं जो कि साहित्यिक अनुवाद में होती
हैं।
तकनीकि, प्रौद्योगिकी एवं इंजीनियरिंग विषयों के अनुवाद की समस्याएं:
तकनीकि, प्रौद्योगिकी एवं इंजीनियरिंग विषयों के अनुवाद में इन सभी विषयों
का पर्याप्त ज्ञान और समझ सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि इन सभी विषयों से
संबंधित शब्दावली काफी जटिल हो जाती है।
इन विषयों के अनुवाद में अनुवादकों की कुछ आम समस्याएं निम्नलिखित हैं:
Ø मानक
तकनीकि शब्दावली का सीमित होना। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के उपरोक्त विषयों
के अनुवादकों की सबसे बड़ी समस्या मानक शब्दावली का सीमित या अनुपलब्ध होना है।
ऐसी स्थिति में बेहद जटिल तकनीकि शब्दों के मामले में लिप्यांतरण (Transliteration) से
काम चलाया जाता है। ऐसी स्थिति में यदि पाठक का तकनीकि ज्ञान विशेषज्ञ स्तर का न
हो तो अनुवाद अपना मूल्य खो देता है।
Ø तकनीकी
अनुवाद के क्षेत्र में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अधिकांश अनुवादक कई-कई
विषयों पर काम करते हैं लेकिन उस सभी विषयों पर उनकी विशेषज्ञता संभव नहीं होती
है, ऐसी स्थिति में औसत गुणवत्ता वाले अनुवाद का जोखिम बना रहता है।
Ø यदि
अनुवादक को उस लक्ष्य की सटीक जानकारी न हो तो अनुवाद का मूल अभिप्राय पूरा नहीं
होता है- जो कि संप्रेषण है। मान लीजिए कि चिकित्सा के क्षेत्र में किसी आम बीमारी
जैसे - टीबी से संबंधित कोई ऐसा पाठ अनुवाद किया जाए जो कि आम जनता के बीच बीमारी
की जानकारी व संदनशीलता बढ़ाने के लिए हो और अनुवादक ‘Tuberculosis’ शीर्षक
का अनुवाद ‘राजयक्ष्मा’ कर
दे तो ऐसे में इस सूचना या जानकारी वाले पर्चे को आमजन द्वारा समझ पाना असंभव हो
जाएगा और अनुवाद अपनी उपादेयता खो बैठेगा।
कार्यालयीन विषयों के अनुवाद की समस्याएं:
भारत जैसे बहुभाषी देश के लिए यह आवश्यक
हो जाता कि सरकारी कामकाज की एक देशव्यापी भाषा हो, जो सभी को स्वीकार्य हो। 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा
स्वीकार किया गया। इसके पश्चात यह आवश्यक हो गया कि हिन्दी भाषा का प्रचार व
प्रसाद अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में सुनिश्चित किया जाए। इसमे आने वाली समस्याओं के
क्रम में द्विभाषा फार्मूला अपनाया गया। केन्द्र सरकार ने यह प्रयास किया कि उसके
संचार व कार्य संबंधी व्यवहारों में राजभाषा के रूप में हिन्दी का उपयोग किया जाए
तथा हिन्दी भाषी क्षेत्रों के अलावा जो प्रदेश है वहां पर यथासंभव वहां की भाषा
में संवाद भी जारी रखे जाएं। रेलवे तथा राष्ट्रीयकृत बैंक व्यवस्था इसका एक सटीक
उदाहरण है। इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनुवाद एक मुख्य हथियार साबित हुआ है।
Ø इस क्षेत्र में भी समस्या कमोबेश वैसी हैं जैसी
कि तकनीकि विषयों के क्षेत्र अनुवाद से संबंधित है। कार्यालय विशेष की शब्दावली की
अनुपलब्धता, उसकी दुरूहता, व्यावहारिकता तथा अनुवाद की गुणवत्ता।
वाणिज्यिक विषयों के अनुवाद की समस्याएं:
आज भूमंडलीकरण के दौर में व्यापार भौगोलिक
सीमाओं को लांघ गया है बहुराष्ट्रीय आकार की कंपनियों के लिए यह आवश्यक हो गया है
कि उनके उत्पाद और उनकी जानकारियां सभी उपभोक्ताओं को उनकी अपनी भाषाओं में उपलब्ध
हों। इसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि अनुवाद की सहायता ली जाए। बहुराष्ट्रीय
प्रकृति के व्यापार में नियंत्रण के लिए कंपनियों को भिन्न-भिन्न देशों में स्थित
अपने परिचालनों उस देश विशेष का भाषा में संवाद करना होता हैं यहां पर अनुवाद
उपयोगी होता है।
Ø वाणिज्य, वित्त एवं बैंकिंग क्षेत्रों में अनुवाद
के लिए अनुवादकों को भी क्षेत्र विशेष का ज्ञान होना परम आवश्यक है। वाणिज्यिक पाठ
- साहित्यिक, अर्ध-तकनीकी तथा गैर-तकनीकि तीनों तरह का हो सकता है। इनमें शाब्दिक
अनुवाद की अपेक्षा अधिक रहती है तथा सभ्दावली चयन एक समस्या हमेशा रहती है।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि अनुवाद चाहे साहित्यिक हो या साहित्येतर,
मूल इन दोनो प्रकार के अनुवादों में कुछ भूलभूत अंतर हैं - यदि भाव और
शब्दपरक अनुवाद के अनुपात को देखा जाए तो साहित्य में भावपरक अनुवाद की मात्रा
बहुत अधिक व शब्दपरक अनुवाद की मात्रा बहुत कम या शून्य होती है, साहित्येतर
अनुवाद में ठीक इसका विपरीत होता है। साहित्यिक अनुवाद में मूल शब्दों की हानि
होने की संभावना प्रबल होती है जबकि साहित्येतर विषयों में आमतौर पर ऐसा नहीं होता
है।
शबदावली ज्ञान, लक्ष्य पाठक के मानसिक स्तर की जानकारी तथा विषय विशेष का
अच्छा ज्ञान साहित्येतर अनुवाद के लिए परम आवश्यक है।
-XX-
बहुत ही सटीक एवं सार्थक लेख है। .... साधुवाद!
जवाब देंहटाएंअनुवाद अध्ययन के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी जानकारी है.
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंबहूत आच्छा....sir i want to know about सामाजिक सास्कृतिक समस्याएँ के बारे मे....
जवाब देंहटाएंBahut acha likha hai kam shabdo m
जवाब देंहटाएंसृजनात्मक साहित्य के बारे में नहीं लिखा श्रीमान
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